इस जीवन को
सुखपूर्वक जीने के लिए प्रेम ही एक साधन है. यह हम सभी मानते हैं. पति-पत्नी,
माँ-बेटे, भाई-भाई से लेकर हर एक व्यक्ति, जो प्रत्यक्ष या अप्रयक्ष रूप से हमारे
जीवन का एक हिस्सा है, उस से प्रेम होना आवश्यक है. कहते हैं कि नफरत भी प्रेम से
ही जन्म लेती है. आप एक बार ध्यान से सोचें तो लगेगा कि, आप आज नफरत उन्ही लोगो से
ज्यादा करते हैं, जिनसे कभी प्रेम हुआ करता था. यह भ्रम है कि प्रेम समाप्त हो
चुका है. अगर नफरत है, तो वह और कुछ नहीं, प्रेम का एक बिगड़ा हुआ रूप है.
मैंने इस विषय को थोडा और जानने की कोशिश कि तो पाया कि, प्रेम कोई भावना(Feeling) नहीं, यह हमारा अस्तित्व है. जैसे कोई वस्तु अणु-परमाणुओं से मिलकर बनी होती है, वैसे ही हम प्रेम से बने हैं. यदि मन में से सभी विकार निकाल दिए जाएँ तो जो रह जाता है वो प्रेम है.
जब कभी कोई आपको
प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है. आनंद कि अनुभूति होती है. तो क्यूँ न इस आनंद के
सर्वोच्च स्तर तक जाया जाए? ऐसी स्थिति कि कल्पना करो जब आप सभी लोगों, प्राणियों,
वस्तुओं के साथ प्रेम का अनुभव करें. उस समय कितने आनंद में होंगे आप, यह सोच के
देखें.
बच्चे प्रेम से भरे
होते हैं, इसलिए वो निर्जीव को भी सजीव कि तरह देखते हैं. जैसे चाँद को “चंदा-मामा”
कहते हैं. पर जहां प्रेम कि कमी हो जाती है तब हम सजीव को भी वस्तु मान लेते हैं.
यूँ तो इंसान के पास भी मांस काटने के चार दांत होते हैं. पाचन तंत्र मांस को पचा भी लेता है. पर ज़रूरी तो नहीं कि मांस खाया ही जाए. इन्सान के पास विवेक होता है, जिस से वो जान सकता है कि क्या सही है और क्या गलत. यूँ तो ईश्वर ने हमें गाली देने का सामर्थ्य भी दिया है, पर हम उसे असभ्य मानते हैं. हम अपने विवेक से विचार करते हैं कि यह गलत है.
क्या आप अपने पालतू
ख़रगोश, चिड़िया (जिस से आप बहुत प्रेम करते हैं) को खा पाएंगे? नहीं. क्यूंकि आप
उसके साथ अपनापन महसूस करते हैं. तो सिर्फ कुछ के साथ क्यूँ? सारी श्रृष्टि के साथ
अपनापन महसूस करो. एक हो जाओ.
एक चिकन-शॉप के पास
से गुजरते हुए मैंने एक आवाज़ सुनी. ध्यान दिया तो वो आवाज़ दुकान में रखे एक ड्रम
में से मुर्गे के फर्फड़ाने कि आवाज़ थी. जिसमें मुर्गे को काटने से पहले बंद किया
जाता था. हो सकता है उसकी खाल को उतारने कि लिए उबलते पानी में डाला गया हो. मैं
वहाँ से तुरंत निकल गया, पर वो दृश्य मेरे सामने कई देर तक घूमता रहा. अगर आप भी
नॉन-वेज़ खाते हैं तो हर शहर में होने वाली बकरों/मुर्गों/मछलियों कि हत्या में
आपका भी योगदान है.
लोग कहते हैं कि फिर
तो हमें फल-सब्जियां भी नहीं खानी चाहिए. उनमें भी प्राण होते हैं.
हाँ उनमें प्राण
होते हैं. परन्तु, प्रकृति ने उन्हें हमारे लिए बनाया है. पेड़ से लटक रहे पके हुए
फल कुछ देर बाद अपने आप झड जाते हैं. जैसे गाय का दूध न निकाला जाए तो अपने आप
बहने लगता है. प्रकृति स्वयं हमें समर्पित कर देती है.
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मांस पचने में 36 से 72
घंटे लेता है जबकि शाकाहार 12 से 24 घंटे लेता है. मतलब मांसाहार शरीर को ज्यादा
ताकत देता है, यह मिथ्या है.
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नवजात बच्चों को हर 2-3
घंटे में कुछ खिलाया जाता है. पर सोचिये, जब वोह 10-12 साल के हो जाते हैं तब से
उन्हें हम मांस खिलाना शुरू कर देते हैं. वो पचने में कितना समय लेता होगा.
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इससे जीवन में सात्विकता कम
होकर, राजसिक और तामसिक वातावरण बन न शुरू होता है. जो विशेषकर बच्चों के मानसिक
विकास में बाधा है.
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कहते हैं खाना बनाने वाले
कि मानसिकता का प्रभाव खाने वाले पर भी पड़ता है, तो क्या जिस जीव को मारा जाता है
उसके डर, गुस्से आदि भावनाओं का प्रभाव नहीं पड़ेगा.
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मछलियों को पैदा करने और
पकड़ने के लिए समुद्री पौधों को नष्ट किया जाता है जो सर्वाधिक मात्र में ऑक्सीजन
पैदा करते हैं. यह तथ्य है कि, ग्लोबल-वार्मिंग का कारण वाहनों, कारखानों से निकले
धूंए से ज्यादा मांसाहार है.
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यह तथ्य है कि यदि सिर्फ
10% अमेरिकन लोग भी मांसाहार छोड़ दें तो संसार में कोई भूख से नहीं मरेगा.
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